Tuesday, June 25, 2013

दास्ताँ है ज़िन्दगी की

रोज़ सुबह जग कर
संकल्प नया करना
दिन- भर भगना दौड़ना
सपनो का पीछा करना
की गई कोशिशों पर पछताना
अपनी नाकामी का ज़िम्मेदार
दूसरो को ठहराना
ये ही दास्ताँ है ज़िन्दगी की
रोज़  नए अरमान है ज़िन्दगी की

Friday, June 14, 2013

वेद-प्रेम का ज्ञान

ऋषि यज्ञावलक्य संसार त्याग कर सन्यास लेने का निर्णय कर चूके है उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को अपने पास बुलाकर कहा,आप दोनों ने मेरे गृहस्थ और वन्प्रस्त दोनों आश्रम काल में मेरे जीवन के उदेश्य की प्राप्ति में पूरा सहयोग दिया है मेरी नहीं चाहता की मेरे नहीं रहने पर आप दोनों देवियों में सम्पति कलह का कारण बने इसलिए मैंने सोचा है आप दोनों देवियों में आश्रम की सम्पति बराबर में वितरित कर दूं
कत्यानी और मैत्रेयी दोनों ऋषि की बाते सून रही थी,
कत्यानी समझती थी ऋषिवर को उनके संकल्प से हटाना संभव नहीं है,उसने कहा मैं अब आपके साथ नहीं चल सकती तो आप के मार्ग में बाधा भी नहीं बनूगी मुझे आपका निर्णय स्वीकार है.
ऋषि अब मैत्रेयी की ओर देखते है, मैत्रेयी गहन विचार में डूबी सोच रही है. वो क्या है जिसके लिए ऋषि संसार को छोड़ रहे है जो उन्हें ब्रह्मचर्यं,ग्रहस्त और वनाप्रस्त आश्रम में प्राप्त नहीं हुआ.
 ऋषि की ओर देख कहती है, ऋषिवर जो सम्पति आप को पूरा ज्ञान और संतुष्टि नहीं दे सकी वो मेरे किस काम की  आप चाहे तो मेरे हिस्सा का  सम्पति भी देवी कत्यानी को समर्पित कर दे और आप मेरी जिज्ञासा का समाधान करे,ऋषि प्रसन्न हो कर मैत्रेयी को कहते है पूछो तुम्हे क्या जानना है,ऋषिवर क्या अब आप को आपकी प्रसिद्धि से प्रेम नहीं रहा,अपनी दोनों पत्नियों से प्रेम नहीं रहा,क्या ये सब आप को ख़ुशी नहीं देती.

ऋषि कहते है,हे मैत्रेयी सुनो  एक पत्नी अपने पति को उसके पति होने के करण प्रेम नहीं करती,ठीक वैसे ही एक पति अपनी पत्नी को उसके पत्नी होने के करण प्रेम नहीं करता वो दोनों अपने आप को प्रेम करते है,हमें केवल आपने आप से प्रेम होता जब हमें संसार की बाहर की वास्तु प्रिय होती है उसका मूल स्रोत अपनी आत्मा को खुश करने की चाह से ही उत्पन्न होती है हम और हमारी आत्मा प्रेम स्वरुप है,जहां हमें प्रेम और अपनेपन की अनुभति होती है हमें वोही अच्छा लगता है धन,संतान सब उनके होने के करना प्रिये नहीं है वो हमारी आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति करते है इसलिए हमें प्रिय है.
अब मुझे मेरा वैभव,प्रसिद्धि,धन,रिश्ते सुखा नहीं देते,मैं सुख-दुःख जैसे आस्थाई मोह से आगे बढ़ कर संसार को समझे के लिए सन्यास लेना चाहता हूँ. मैत्रेयी ध्यानपूर्वक ऋषि की बाते  सुन रही थी.कत्यानी दोनों में हो रहे संवाद को दूर खड़ी सुन रही है.

Monday, June 10, 2013

गंगा -कुछ कहा रही हमसे

गंगा

क्या कोई सुनेगा मेरी भी बात
क्यों है दूर- दूर तक छाई वीरानी
सूखे पनघट,टूटे नाव, नहीं मेरा कोई निशान
क्यों हूँ आज में दुखी ,अपने ही जन
से रूठी वीरान गंगा
नहीं रही अब में वेदों की महान गंगा
भैरव की शीर्ष की शोभा
माँ के समान पूजनीय गंगा
कभी थी में देश की रक्त वाहनी
भागीरथ की कुल की स्वमानी
अब हूँ में नाले समान
अब में लोगो के पाप नहीं
उनके अभिशाप को ढोती हूँ
क्यों मुझ मैं तू डूबकी
लगए,जब तू मेरी पवित्रता
को ही सभाल ना पाए?


मेहरम

चुप ने ऐसी बात कही खामोशी में सुन  बैठे  साथ जो न बीत सके हम वो अँधेरे चुन बैठे कितनी करूं मैं इल्तिजा साथ क्या चाँद से दिल भर कर आँखे थक गय...