Wednesday, April 10, 2013

देश में किसानो की स्तिथी

सन 1953 में बनी फिल्म दो बीघा ज़मीन को जितनी बार देखती हूँ आज के किसानो और सिनेमा के किसान किरदार मैं बहुत अंतर नहीं ढूँढ पाती बल्कि सामान्यता अधिक नज़र आता है आज भी खेतो में किसान कड़ी धुप में अपने बैल की जोड़ी के साथ पसीना बहाते,मेहनत करते दिख जाते है विशेषकर छोटो किसान आपने खेत में उपज उपजा कर ज़िन्दगी की लड़ाई को लड़ने के लिए ठीक उसी तरह संघर्ष करते देखे जा सकते है,आज भी लोग अपने किसान होने की मजबूरियों को ढोते हुए जान पड़ते है
महाराष्ट्र में पड़ा सूखा लगभग 7000 से अधिक गाँव को अपने चपेट में लेचूका है  बूँद –बूँद पानी को तरसते लोग और किसान खेती की बात सोच भी नहीं सकते और कोई  भी सरकारी निति प्रभावित किसानो की मदद करती नज़र नहीं आ रही है,महाराष्ट्र में किसानो की आत्महत्या की संख्या भी अन्य राज्यों  से अधिक है प्रकृति या मानवी प्रकोप ने जल की समस्या उत्पन्न की है ये विचार का मुदा है पर कहानी यही आकर रुक नहीं जाती है
देश में फसल की अधिक  पैदावार भी एक समस्या की तरह ही है विशेष रूप से छोटे किसानो के लिए क्यूंकि अधिक उपज भंडारण के साथ उचित दाम पाने की मुश्किले ले कर आती है हल ही में
बंगाल के जालपाईगुडी में सब्जी की खेती करने वाले किसानो ने सडको पर फेक कर सब्ज़ियो को बर्बाद कर दिया क्यूंकि की बाज़ार में बिकने वाले टमाटर के कीमत 30 से 38 रूपये है पर किसानो से माल खरीदने वाले व्यापारी महज 1 से 3 रूपया देने को राजी है सिर्फ टमाटर ही नहीं करेला,बंधगोभी,बैगन अदि सब्जियों को किसान उपज के लगत से कम दाम में बेच कर घाटा सहने से अच्छा उसे बर्बाद करना बेहतर समझता है
चावल,गेहू अन्य अनाजो की अधिक पैदवार भी अनाज की कीमतों को ज़मीन पर ला पटकता है  इससे सिर्फ नुकसान ही होता है भण्डारण की कमी के कारण खुले में अनाज सड़ जाते  है इंसानों से ज्यदा अनाज चूहा खा जाते है आम आदमी को भी अधिक पैदवार से कोई फायदा नहीं कीमते बढ़ती ही जाती है कूल मिलाकर नुकसान ही नुकसान
बिहार जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य की बात करे तो  पलायन एक बड़ी समस्या है विशेषकर छोटे किसान और खेतो में काम करने वाले मजदूरों की  फसल रोपनी और कटनी के समय किसानो की समस्या मजदूर ढूँढना की भी होती है ,
बिहार पूरी तरह मानसून और भूमिगत जल पर निर्भर है सिचाई व्यवस्था नाम मात्र की है ,खेती के उन्नत तरीको के जानकारी के अभाव तथा सरकार के उदासीन बर्ताव ने भी किसानो को तोड़ कर रख दिया है
आज की युवा पीढ़ी को कृषि की तरफ कोई भी चीज प्रेरित नहीं करती खेती करना और जुआ खेलना एक जैसा होता जा रहा है अनिश्चित मानसून,सिचाई की खराब इंतजाम,खाद,कीटनाशक के बढते दाम खेती के खिलाफ होती  नज़र आ रही है दिल्ली से सटे राज्य हरयाणा,उत्तर प्रदेश और राजस्थान के सीमावर्ती किसान खासकर नॉएडा के क्षेत्र के किसान अपनी खेती उक्त ज़मीन बेच कर कोइ रोज़गार करना  अधिक पसंद कर रहे है खेती के स्थान पर खासकर युवा क्यूंकि हमारी समाज में भी खेती करना और जानवर पालना निरक्षर लोगों के काम के रूप में देखा जाता है पर सच्चाई उलटी है किसान फ़सल उगता हो तो सारा देश खाता है पर अंनाज पैदा करने वाला किसान और खेतीहर मजदूर आधी पेट खाना खाकर अक्सर रात बिताता है.




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