Wednesday, December 30, 2015

औरत की जेब क्यूँ नहीं होती?

‘जेब’ यानि पॉकेट यानि पैसा, ताकत संसाधन जुटाने और बाज़ार को खरीदने की ताकत पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान समाज में ‘ जेब’ शर्ट और पैंट में पाए जाते हैI जो महिलाए शर्ट और पैंट पहनती भी है, वो पैसे जेब में न रखकर पर्स में रखती है, पारंपरिक परिधान जैसे साड़ी, सलवार-कमीज़ में जेब नहीं होती है, इसका मतलब ये नहीं नहीं की महिला के पास पैसे नहीं होते, सवाल ऐसा है की बाज़ार में क्या खरीदना है, ये कौन तय करता है? पैसा होना अलग बात होती है उसे खर्च करना का निर्णय अलग, एकेल परिवार में रहने वाले किसी कमाऊ पुरुष से पूछे तो वो इस दर्द को खुले मजाक में कहेगा, होम मिनिस्ट्री तो बीवी संभालती हैl पर हम सब जानते है की फाइनेंस मिनिस्टर के बिना सहमति के कुछ नहीं ख़रीदा जा सकताl है,कुछ घर अपवाद हो सकते हैl

मैं एक महिला के बारे में बताना चाहूंगी,जब मैंने उसे देखा तो वो आम महिला सी दिखी बाद में माँ ने बताया की इसके पति ने इसे छोड़ दिया है, फिर जोड़ते हुए कहा बदमाश आदमी है नशेड़ी एक पैसा नहीं देता था, अपने घर का टीवी तक बेच दिया नशा के चकर में घर छोड़कर भाग गयाl
मेरी समझ में नहीं आया की औरत को आदमी ने छोड़ा या उसका आदमी घर छोड़कर भाग गया
पर उस औरत के माथे पर समाज ने लिख दिया की इसका आदमी इसको छोड़ गया है, उस औरत के पास भी जेब नहीं थीl तीन बेटे है, बड़ा शादीकर अलग है, बीचवाला नौकरी करता है, छोटा पढता है सरकारी स्कूल में, ये औरत बटन लगाने का काम करती है क्यूंकि इस काम को सिखने के लिए कम पैसे और मेहनत लगते है, चुकी वो मुश्किल से दस से पचास रूपए प्रतिदिन कमा लेती कुछ पैसे बेटा दे देता है, पेटभर जाता होगा मेरी समझ से, उसकी जेब मज़बूरी में बनी है क्यूंकि जीना तो है,इसलिए उसे कमाना पड़ता हैl
 समाज महिला को पैसे के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के बहुत पक्ष में नहीं दिखता, कामकाजी महिलाएं को कमाऊ सदस्य की तरह नहीं बस वैकल्पित आय का जरिया की तरह देखा जाता हैl यदि घर में ऐसी परिस्तिथि आ जाए की किसी को सारा दिन घर सँभालने के लिए रहना हो तो, महिला से ही नौकरी छोड़ बलिदान की अपेक्षा की जाती है, वर्त्तमान समय को देखते हुए लगता है की बाज़ार पर पूरी तरह निर्भर समाज में एक कमानेवाले व्यक्ति पर निर्भर रहना जोकिम उठाने जैसा लगता हैlसमाज में आर्थिक रूप से महिलाओ की भागीदारी को पहचान की भी आवश्कता हैl साथ ही महिला की पैसे तक पहुँच, संसाधन को जुटाने की क्षमता और आर्थिक मामलो में निर्णय के आज़ादी को प्रोत्साहन देना होगाl तभी हम एक संतुलित और सुरक्षित परिवार की परिकल्पना कर सकते हैl

Friday, December 25, 2015

किताबे

मेरे सिरहाने रहकर भी
मुझसे रूठी है किताबे
कुछ टेबल पर,कुछ पलंग
नीचे जा छुपी
आधी पढ़ी, आधी बाकी
कोने में रखी किताबे

हमेश पढ़ी जाने के इंतजार में
अलमीरा में सजी किताबे
ख़ामोशी से जिंदगी का साथ निभाती

मेरी दोस्त किताबे..

Rinki

Tuesday, December 15, 2015

आतंकवाद

कही किसी ने धर्म पर अपनी
राय दी
मानवता की मर्यादा को तोड़ता हुआ
असंवेदनशील टिप्पणी

कही किसी ने खेल खेला
ऐसा शतरंज का खेल जिसे
खेलता कोई है
पर मरते बस मोहरे है
मेरे शहर के मोहरे भी
खबर सुन सक्रिय हो गए
जुलुस निकला, नारा लगे
शहर आतंक में डूब गया
हर इन्सान डरा था

आतंक चेहरे पर पसरा था
उस दिन हर चेहरा आतंकवादी बन
जाने को तैयार था
अपने बचाव में हथियार उठाने को तैयार था
शहर में आतंकवाद ही आतंकवाद था


Tuesday, December 8, 2015

तू कौन है?

ये सवाल जो पीछा करता है
हर मोड़ पर पूछा करता है
तू कौन?
तू कौन है?

मैं हूँ वो हमेशा हसंता हूँ
पुरषार्थ पर यकीन करता हूँ
समय पर जगता
समय पर सोता हूँ
नियम पर ही चलता हूँ

समाज ही मेरा धर्म है
रिवाज ही मेरा कर्म है
वो बोले जो मैं सुनता हूँ
उनकी कही मैं करता हूँ
मैं आदम हूँ
मैं आदम हूँ

फिर भी सवाल दहकता है
मेरे अन्दर जो तड़पता
वो कौन है?
मेरे अन्दर एक और शख्स
जो रहता है
मुझ पर जो हँसता रहता है
मुझे डरपोक कहता है

तू बस इस समाज में
रोज़ पिसने के लिए जीता है
जिसे जानता नहीं
उसी को पूजता है
जो जानता नहीं
उसी को मानता है

अच्छा कहलाने की कोशिश में
तू अपनी कहा सुनता है
तू सिर्फ इन्सान है
जो ईश्वर को भी स्वार्थ से पूजता है

अपनी छोड़ सबकी सुनता है
अपने भीतर नहीं झाकता है
दर- दर भटकता है
तू सिर्फ इन्सान है





Friday, December 4, 2015

ठण्ड के दिन

ठण्ड में शाम जल्दी ही रात का कंबल
ओढ़े लेती है

सूरज भी अपने आप को स्वेटर में लपेट लेता है
हम भी आग से चिपक कर
गरमाहट को महशूस करते है

ठण्ड की सुबह-शाम अलसाई सी नज़र आती है
दोपहर की धूप पूछो मत महबूबा सी नज़र आती है
बैठ साथ उसके दिन पलभर में गुजर जाता है

फिर शाम जल्दी से रात का कंबल
ओढ़े लेती है

Sunday, November 29, 2015

सुन्दरता

चाहे कितना भी भर लो
अपनी सोच से ज्यदा
पहुँच से ऊपर

ढेर लगा लो पैसे का
जाल बिछा लो रिस्तो का
जितना हो सके खरीद लो
छल लो किसी को प्यार के नाम से

खुद को बंद कर लो
खुशी नाम के संदूक में
चाहे कुछ भी कर लो
जीत नहीं पाओगे
भीतर के सूनेपन को

आकाश से कम है तुम्हारे पास
न कोई मुकाबला, न कोई मेल
अनगिनत तारे, सूरज, गृह
आकाश गंगा और हजारो लोग

सब भरा पड़ा है
फिर भी खाली दिखता है
सुना नज़र आता है
गुमसुम हो कर भी सुन्दर दिखता है

आकाश सिर्फ अपने आप को सुनता है
कभी खुद को सुनो
खालीपन के सुन्दरता को देख
 सकेगो

Rinki

Tuesday, November 24, 2015

दर्द

गुलज़ार कहते है
खुशी फूलझड़ी सी होती है
रोशनी बिखरती झट से खत्म हो जाती है

दर्द देर तक महकता है
भीतर ही भीतर सुलगता है
उसकी खुशबू जेहन में देर
तक रहती है

ख़ुशी को भी हम
दर्द भर कर अहा से याद करते है
क्योंकि दर्द ही देर तक ठहरता है
दर्द यादों में जम जाता है
पिघलता है आंसू बन
कभी हंसी में बिखर जाता है


क्योंकि दर्द ही देर तक ठहरता है

Saturday, November 14, 2015

बाल दिवस

बाल दिवस के मेले में
हर बाल कन्हिया बन नाच रहा
हर बालिका मलाला बन कर अपने
अधिकारों पर बात रख रही
हर बच्चा कलाम सा दिख रहा
हर के चहरे पर प्रतिभा का नूर बिखर रहा

वो जो लड़का खड़ा है एक कोने में
बस रंग-बिरंगे गुबारे को देख रहा
लाल उसे लड्डू सा नज़र आ रहा
हरा रंग के चप्पल का जाने कब से सपना देख रहा
लड़का बस रंग-बिरंगे गुबारे को देख रहा

गिनती के गुबारे बचे है
कब खत्म होगे सोच रहा
बाल मेला में घूम सके
हर बच्चे को हसरत भरी आँखों से देख रहा

वो कोने में खड़ा गुबारे बेच रहा
बस रंग-बिरंगे गुबारे को देख रहा

Rinki








Sunday, November 8, 2015

मिट्टी का दिया

कुम्हार चाक चलता हुए सोचता
कितना बिक पाएगा दीया इस बार
बिजली के बल्ब और मोमबती के बीच
क्या कही टिक पाएगा
मिट्टी का दिया इस बार

मिठाई आती है अब दुकानों से
पहले जैसा कहा मानता अब त्यौहार
सस्ती चीजों से पटा है बाज़ार
पल्स्टिक से बने सामान
बिगाड़ रहे गरीब कलाकारों का त्यौहार

क्या कभी किसी ने सोचा है
अपने ही देश का कुम्हार कैसे मनाएं त्यौहार
जब हम चीन में बने लक्ष्मी, गणेश की मोतियों
को खरीद लाते है हम हर बार

काश हर घर मिट्टी का दिया जलाए
ताकि मेरे बच्चो को भी लगे की
इस बार दीपावली का है त्यौहार


Rinki

Sunday, November 1, 2015

रावण मरता क्यों नहीं?

बार-बार जलाने के बाद भी
रावण साल दर साल
विशालकाय और विकराल रूप धारण
करता रहा

ना रावण को जलानेवाला हारे
ना ही रावण हारा
सिलसिला सदियों तक चलता रहा

रावण को जलानेवाले खुश है की
अपने से सौ गुना विशालकाय
रावण को हर बार जला ही देते है
रावण उनसे ज्यदा खुश है
जाने कब से जला रहे है फिर भी मुझे मार नहीं पाते?

कुछ बुधजिवी को गहरे रहस्य के बारे में पता था
रावण हर साल जालकर भी क्यों मरता नहीं



वो जानते है, रावण का हर साल जलना
जरुरी क्यों है?
कई परिवारों का चूल्हा जलता है
एक रावण के जलने से

रावण भी जनता इस सत्य को
उसे जलानेवाला वाले उसे क्यूँ नहीं मार सकते?
लालच,क्रोध,इर्षा,चाहत दुःख और वासना
जैसे रावण को कभी मारा ही नहीं सके
इसलिए उन्हें आभासी रावण को जलाना पड़ता है
और यही सत्य रावण की अमरता का रहस्य है





Wednesday, October 28, 2015

“प्यार”


पहली ठोकर ने मुह के बल गिराया
दर्द पुराना होने तक महसूस किया
दूसरी ठोकर ने सर खोल कर रखा दिया
होश आने तक जिंदगी हवा हो गई थी
तीसरी ठोकर ने आत्मा को रुला दिया

दुबारा न गिराने का इरादा कर
सोचा पत्थर ही हटा दे

पत्थर को जो  देखा
दिल ने कहा, चलो फिर
ठोकर खाते है

क्योंकि उस पत्थर का नाम

“प्यार” था

मेहरम

चुप ने ऐसी बात कही खामोशी में सुन  बैठे  साथ जो न बीत सके हम वो अँधेरे चुन बैठे कितनी करूं मैं इल्तिजा साथ क्या चाँद से दिल भर कर आँखे थक गय...