Sunday, July 3, 2016

अपनी पहचान ढूँढता हिंदी लेखक


लाइब्रेरी में नई किताब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हिंदी किताबो की गिनती भर उप्लब्धता को देखकर मन जैसे उदासी के कोहरे में डूब गया,जहां तक मेरी नज़र गई अंग्रेगी किताबो की भरमार थी, हर विषय पर कहानी, नॉवेल,सेल्फ हेल्प और  खाना बनाने तक की किताबे थी, पर हिंदी में कोई किताब ढूंढने में कामियाब नहीं हो पाई | प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद,

महादेवी वर्मा आदि की रचना हमेशा से लाइब्रेरी की शोभा बढ़ाती रही  है पर किसी नए हिंदी लेखक को खोज पाना अक्सर मुशकिल हो जाता है| हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे में लिखने की मनसा नहीं है मेरी, मैं अपने अनुभव को साझा कर रही हूँ |

हिंदुस्तान में हिंदी लेखको की स्तिथि और दशा पर कोई विचार या सोच बनती नहीं दिखती है, कहने वाले कहते है आज हर कोई लेखक बन गया है, राजनेता,खिलाडी,अभिनेता और आम आदमी भी अपने अनुभव और विचार किताब के मध्यम से साझा कर रहे है,  पर यदि  ध्यान से देखा जाए तो अधिकतर  आर्टिकल, ब्लॉग और किताब अंगरेजी में होती है  रास्ट्रीयभाषा कही- किसी ओट में छिप जाती है| हिंदी में लिख रहे युवा लेखक अंग्रेजी लेखक की तरह लेखनी पर निभर्र रहकर जीविका नहीं कमा सकते |लिखना रोजगार के बाद आता है क्यूंकि हिंदी लेखक होना कोई काम नहीं माना जाता,आप हिंदी लेखक की उपमा लेकर अपनी शादी की बात भी नहीं कर सकते लोग पूछते है लिखना तो ठीक है काम क्या करते हो?

सोच कर बहुत निराशा होती है की वर्त्तमान समय मे हिंदी साहित्य को पहचान देता कोई भी  चेहरा नही है |

युवा लेखक अपना ब्लॉग लिखते है जिसे पढ़ने वालो की संख्या गिनी चुनी होती है हर वक़्त अपनी पहचान की जद्दो-जेहद में कही न कही टूटते तारे के तरह कोई लेखक कही खो जाता है हार जाता है|

पुराने हिंदी लेखक अपनी पहचान लेखक तबके में बना लेते और आसानी से अखबार,मगज़ीन या अन्य माध्यम से अपनी रचना को प्रकाशित करने में सफल हो जाते है, लेकिन  नए लेखको के लिए ब्लॉग छोड़कर कोई जगह उपलब्ध नहीं है रचना प्रकाशित करने के लिए, मैं अक्सर अकबर के एडिटोरिल पेजर को देखकर पाती  हूँ की

वहाँ उन प्रसिद्ध व्यक्ति को ही स्थान मिल पाता जो राजनेता या अखबार से जुड़े सदस्य होते  है |



आज देश में हिंदी के पाठक बहुत कम है, इसका श्रेय अंग्रेजी के गुणगान करने वाले लोगो पर जाता है, युवा वर्ग परीक्षा की किताबे पढने में व्यस्त है, जिनका रुझान साहित्य की तरफ है उन्हें अंग्रेज़ी अपनी ओर खींच ले जाती है |

मैं कही भी पाठको पर हिंदी के लेखको के दशा के लिए जिम्मेदार नहीं मानती क्यूंकि मुझे लगता है की हिंदी किताबो की कम उपलब्धता भी मांग को कम करती है | एक बड़ी अच्छी कहावत है” जो दिखता है वो बिकता है” इस कहावत के अनुसार बाज़ार में जो चीज़ अधिक देखेगी वही बेकेगी भी | हिंदी के लेखक न अक्सर देखे जाते है  न पाए जाते है, लेखकगण भी इस स्थिती को लेकर चिंतित नहीं नज़र आते है |मुझे लगता है एक प्रयास की आवशकता है जहां हिंदी के लेखको को बिना किस रूक-टोक अवसर मिल सके अपनी रचना और विचार को साझा करने का और ये शयद पेहला कदम बदलाव की और होगा |



रिंकी राउत

2 comments:

  1. bahut badiya soch apki rinki ji......angreji ke parbhav mein apni bhasha bhoolate ja rahe hai hum

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  2. Manindar Ji, Bahut Dhanyvad lekh par appke vichar ke liye

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